Sunday, November 13, 2016

अव्वलीं चाँद ने क्या बात सुझाई मुझ को

याद आई तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई मुझ को
सर-ए-ऐवान-ए-तरब नग़्मा-सरा था कोई

रात भर उस ने तिरी याद दिलाई मुझ को
देखते देखते तारों का सफ़र ख़त्म हुआ

सो गया चाँद मगर नींद  आई मुझ को
इन्ही आँखों ने दिखाए कई भरपूर जमाल

इन्हीं आँखों ने शब-ए-हिज्र दिखाई मुझ को
साए की तरह मिरे साथ रहे रंज  अलम

गर्दिश-ए-वक़्त कहीं रास  आई मुझ को
धूप इधर ढलती थी दिल डूबता जाता था इधर

आज तक याद है वो शाम-ए-जुदाई मुझ को
शहर-ए-लाहौर तिरी रौनक़ें दाइम आबाद

तेरी गलियों की हवा खींच के लाई मुझ को

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